
कठिन है डगर
एक मनुष्य के जीवन की सांसारिक शुरुआत होती है जब वह माँ के गर्भ से बाहर आता है। वह माँ के भौतिक शरीर से जुड़ा था इसलिए उसके हर परिवर्तन को सहजता से महसूस कर लेता है। धीरे–धीरे यह जुड़ाव क्षेत्र फैलने लगता है और अब उसके स्वयं की इन्द्रियाँ अपने आस–पास के भौतिक जगत को समझने के लिए सक्रिय हो जाती हैं। इस भौतिक जगत के प्रसार के साथ–साथ अपनी ऐंद्रिक शक्ति, विचार– भावना शक्ति का विस्तार समझना, विश्लेषण करना, दूरदर्शिता के सामर्थ्य का विस्तार होता है। इस भौतिक विस्तार के साथ–साथ गुण–अवगुण भी सहजता से प्रवाहित होने लग जाते हैं और धीरे–धीरे वह युवा हो जाता है। सीधी–सी बात है कि युवा होने तक वह अनगिनत परिस्थितियों के साथ पला और बड़ा हुआ है। उसकी चेतना के वर्तमान प्रवाह तक की यात्रा में वह कभी एकाकी नहीं रहा इसलिए आज युवा रूप में जैसा बना वह उन स्थितियों की देन हैं जिन्हें उसने ऐंद्रिक, वैचारिक और भावनात्मक स्तर पर जिया है।
बचपन है महत्वपूर्ण
आज के बचपन को कल युवा होना ही है। बचपन की परवरिश और वातावरण ही उसके युवा होने का आधार बनेंगे। अतः हम अपनी संतान को कैसा युवा बनाना चाहते हैं यह हमारे ऊपर निर्भर है। हमारी परम्पराओं में वैवाहिक जीवन और उसकी परिस्थितियों की शिक्षा दिए जानेपर कभी विचार नहीं हुआ। इस ज्ञान को देने की ज़िम्मेदारी माता, दादी और नानी या फिर भगवान भरोसे छोड़ दी जाती है। लिंग भेद, अशिक्षा, शारीरिक सरंचना, भावनात्मक संरचना आदि के छत्र तले बालक–बालिका का विकास भी भिन्न प्रकार से होता है। दोनों के संसार अलग हैं पर दोनों एक ही सामाजिक व्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग होते है।
यदि हम बालक को बालिका की शिक्षा देंगे तो भविष्य में हमें क्या मिलेगा इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। दो भाई भी हैं तो भी उनमें जुड़ाव रहे, वे भिन्न–भिन्न क्षमता के धनी हों पर भावनात्मक रूप से जुड़ें रहें यह महत्वपूर्ण है। पर जाने–अनजाने माता–पिता द्वारा ऐसी गलतियाँ हो जाती हैं कि ये भाई एक–दूसरे को देखना भी पसन्द नहीं करते। वर्तमान में यदि रिश्ते रक्तरंजित हैं तो इसका मूल कारण बचपन में अवश्य रहा है। किसी एक का पक्ष, किसी एक को महत्त्व, किसी एक की सराहना, किसी एक के प्रति उदारता आदि अनेक तथ्य हैं जो दो के बचपन में उस विष की बूँद बन जाते हैं जो समय के साथ–साथ बढ़ता चला जाता है। यह विष किस रूप में मुखरित होगा इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। क्यों न हम अपने बच्चों के पालन में इस बात का ख्याल रखें? यदि इस विद्रूपता को पनपने से रोकने में सक्षम हो जाते है तो हमारा परिवार, हमारा समाज, हमारा देश सुरक्षित रहेगा। अपराध कम होंगे।
विवाह : क्या से क्या हो गए हम!
एक से दो हुए, दो से तीन और हो सकता है कि चार भी हो जायें। परिवार ऐसे ही बनता है। वैवाहिक जीवन की स्थापना का अस्तित्व में आना एक दिन की प्रक्रिया नहीं है। अतीत में वह समय भी रहा है जब विवाह नाम की कोई परंपरा नहीं रही होगी। पर, तात्कालिक दृष्टाओं और विचारकों ने इसे बेहतर समाज और जीवन की परिकल्पना में इसे जन्म दिया । इस परंपरा का महत्व इसी में समाहित है कि यह हज़ारों वर्षों से अस्तित्व में है और आगे भी बनी रहे इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। यह परंपरा रही है इसलिए हमारी संस्कृति और समाज का अस्तित्व आजतक बना रहा है। हज़ारों साल बाद भी संस्कृति और समाज एक महान और आदर्श रूप में उपस्थित है। इसमें कोई दौराय नहीं है कि लिव–इन रिलेशनशिप जैसी मान्यतायें अस्तित्व में आ रही हैं जिसके माध्यम से उत्तरदायित्व पूर्ण जीवन और समाज को बनाये रखना भविष्य के लिए चुनौतिपूर्ण रहेगा। वस्तुतः यह एक ऐसे समाज की ओर ले जानेवाला कदम है जिसमें हज़ारों साल से बहुत– से उतार–चढ़ाव के बाद बनी सामाजिक व्यवस्था का ढाँचा चरमर्रा जाने की ही संभावना है। भीड़तंत्र के आगे व्यवस्था बौनी हो जाती है और बुद्धिजीवी मौन। हम यदि उस भीड़ का हिस्सा हैं जो लड़की के द्वारा लड़कों के जैसे काम किये जानेपर ताली बजाता है और लड़के द्वारा लड़की जैसे काम करने पर मायूस हो जाता है तो अवश्य ही हम सही रास्ते पर नहीं है। यहाँ आत्ममंथन किया जाना आवश्यक है। समाज आंदोलित हो तो व्यक्ति उससे प्रभावित नहीं हो और व्यक्ति आंदोलित हो तो समाज प्रभावित न हो – यह संभव नहीं। वैचारिक और भावनात्मक स्तर पर दोनों प्रभावित होते ही हैं। हमें चाहिए कि बेटी और बेटे में भेद न रखें पर दोनों की परवरिश इस रूप में करें कि समाज में दोनों का महत्त्व बना रहे।